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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचम सर्ग / पृष्ठ - ४

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        यह समझ रही हूँ और हूँ जानती ही।
        हृदय धन तुमारा भी यही लाडिला है।
        पर विवश हुई हूँ जी नहीं मानता है।
        यह विनय इसी से नाथ मैंने सुनाई॥61॥

अब अधिक कहूँगी आपसे और क्या मैं।
अनुचित मुझसे है नाथ होता बड़ा ही।
निज युग कर जोड़े ईश से हूँ मनाती।
सकुशल गृह लौटें आप ले लाडिलों को॥62॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

सारी बातें अति दुखभरी नन्द अर्धाङ्गिनी की।
लोगों को थीं व्यथित करती औ महा कष्ट देती।
ऐसा रोई सकल-जनता खो बची धीरता को।
भू में व्यापी विपुल जिससे शोक उच्छ्वासमात्रा॥63॥

        आविर्भूता गगन-तल में हो रही है निराशा।
        आशाओं में प्रकट दुख की मुर्तियाँ हो रही हैं।
        ऐसा जी में ब्रज-दुख-दशा देख के था समाता।
        भू-छिद्रों से विपुल करुणा-धार है फूटती सी॥64॥

सारी बातें सदुख सुन के नन्द ने कामिनी को।
प्यारे-प्यारे वचन कहके धीरता से प्रबोध।
आई थी जो सकल जनता धर्य्य दे के उसे भी।
वे भी बैठे स्वरथ पर जा साथ अक्रूर को ले॥65॥

        घेरा आके सकल जन ने यान को देख जाता।
        नाना बातें दुखमय कहीं पत्थरों को रुलाया।
        हाहा खाया बहु विनय की और कहा खिन्न हो के।
        जो जाते हो कुँवर मथुरा ले चलो तो सभी को॥66॥

बीसों बैठे पकड़ रथ का चक्र दोनों करों से।
रासें ऊँचे तुरग युग की थाम लीं सैकड़ों ने।
सोये भू में चपल रथ के सामने आ अनेकों।
जाना होता अति अप्रिय था बालकों का सबों को॥67॥

        लोगों को यों परम-दुख से देख उन्मत्त होता।
        नीचे आये उतर रथ के नन्द औ यों प्रबोध।
        क्यों होते हो विकल इतना यान क्यों रोकते हो।
        मैं ले दोनों हृदय धन को दो दिनों में फिरूँगा॥68॥

देखो लोगों, दिन चढ़ गया धूप भी हो रही है।
जो रोकोगे अधिक अब तो लाल को कष्ट होगा।
यों ही बातें मृदुल कह के औ हटा के सबों को।
वे जा बैठे तुरत रथ में औ उसे शीघ्र हाँका॥69॥

        दोनों तीखे तुरग उचके औ उड़े यान को ले।
        आशाओं में गगन-तल में हो उठा शब्द हाहा।
        रोये प्राणी सकल ब्रज के चेतनाशून्य से हो।
        संज्ञा खो के निपतित हुईं मेदिनी में यशोदा॥70॥

जो आती थी पथरज उड़ी सामने टाप द्वारा।
बोली जाके निकट उसके भ्रान्त सी एक बाला।
क्यों होती है भ्रमित इतनी धूलि क्यों क्षिप्त तू है।
क्या तू भी है विचलित हुई श्याम से भिन्न हो के॥71॥

        आ आ, आके लग हृदय से लोचनों में समा जा।
        मेरे अंगों पर पतित हो बात मेरी बना जा।
        मैं पाती हूँ सुख रज तुझे आज छूके करों से।
        तू आती है प्रिय निकट से क्लान्ति मेरी मिटा जा॥72॥

रत्नों वाले मुकुट पर जा बैठती दिव्य होती।
धूलि छा जाती अलक पर तू तो छटा मंजु पाती।
धूलि तू है निपट मुझ सी भाग्यहीना मलीना।
आभा वाले कमल-पग से जो नहीं जा लगी तू॥73॥

        जो तू जाके विशद रथ में बैठ जाती कहीं भी।
        किंवा तू जो युगल तुरगों के तनों में समाती।
        तो तू जाती प्रिय स्वजन के साथ ही शान्ति पाती।
        यों होहो के भ्रमित मुझ सी भ्रान्त कैसे दिखाती॥74॥

हा! मैं कैसे निज हृदय की वेदना को बताऊँ।
मेरे जी को मनुज तन से ग्लानि सी हो रही है।
जो मैं होती तुरग अथवा यान ही या ध्वजा ही।
तो मैं जाती कुँवर वर के साथ क्यों कष्ट पाती॥75॥

        बोली बाला अपर अकुला हा! सखी क्या कहूँ मैं।
        ऑंखों से तो अब रथ ध्वजा भी नहीं है दिखाती।
        है धूली ही गगन-तल में अल्प उदीयमाना।
        हा! उन्मत्ते! नयन भर तू देख ले धूलि ही को॥76॥

जी होता है विकल मुँह को आ रहा है कलेजा।
ज्वाला सी है ज्वलित उर में ऊबती मैं महा हूँ।
मेरी आली अब रथ गया दूर ले साँवले को।
हा! ऑंखों से न अब मुझको धूलि भी है दिखाती॥77॥

        टापों का नाद जब तक था कान में स्थान पाता।
        देखी जाती जब तक रही यान ऊँची पताका।
        थोड़ी सी भी जब तक रही व्योम में धूलि छाती।
        यों ही बातें विविध कहते लोग ऊबे खड़े थे॥78॥

द्रुतविलम्बित छन्द

तदुपरान्त महा दुख में पगी।
बहु विलोचन वारि विमोचती।
महरि को लख गेह सिधारती।
गृह गई व्यथिता जनमंडली॥79॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

धाता द्वारा सृजित जग में हो धारा मध्य आके।
पाके खोये विभव कितने प्राणियों ने अनेकों।
जैसा प्यारा विभव ब्रज ने हाथ से आज खोया।
पाके ऐसा विभव वसुधा में न खोया किसी ने॥80॥