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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तम सर्ग / पृष्ठ - २

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मुखरित करता जो सद्म को था शुकों सा।
कलरव करता था जो खगों सा वनों में।
सुध्वनित पिक सा जो वाटिका को बनाता।
वह बहु विधा कंठों का विधाता कहाँ है॥21॥

सुन स्वर जिसका थे मत्त होते मृगादि।
तरुगण-हरियाली थी महा दिव्य होती।
पुलकित बन जाती थी लसी पुष्प-क्यारी।
उस कल मुरली का नादकारी कहाँ है॥22॥

जिस प्रिय वर को खो ग्राम सूना हुआ है।
सदन सदन में हा! छा गई है उदासी।
तम वलित मही में है न होता उँजाला।
वह निपट निराली कान्तिवाला कहाँ है॥23॥

वन-वन फिरती हैं खिन्न गायें अनेकों।
शुक भर-भर ऑंखें गेह को देखता है।
सुधि कर जिसकी है शारिका नित्य रोती।
वह श्रुचि रुचि स्वाती मंजु मोती कहाँ है॥24॥

गृह-गृह अकुलाती गोप की पत्नियाँ हैं।
पथ-पथ फिरते हैं ग्वाल भी उन्मना हो।
जिस कुँवर बिना मैं हो रही हूँ अधीरा।
वह छवि खनि शोभी स्वच्छ हीरा कहाँ है॥25॥

मम उर कँपता था कंस-आतंक ही से।
पल-पल डरती थी क्या न जाने करेगा।
पर परम-पिता ने की बड़ी ही कृपा है।
वह निज कृत पापों से पिसा आप ही जो॥26॥

अतुलित बलवाले मल्ल कूटादि जो थे।
वह गज गिरि ऐसा लोक-आतंक-कारी।
अनु दिन उपजाते भीति थोड़ी नहीं थे।
पर यमपुर-वासी आज वे हो चुके हैं॥27॥

भयप्रद जितनी थीं आपदायें अनेकों।
यक यक करके वे हो गईं दूर यों ही।
प्रियतम! अनसोची ध्यान में भी न आई।
यह अभिनव कैसी आपदा आ पड़ी है॥28॥

मृदु किसलय ऐसा पंकजों के दलों सा।
वह नवल सलोने गात का तात मेरा।
इन सब पवि ऐसे देह के दानवों का।
कब कर सकता था नाथ कल्पान्त में भी॥29॥

पर हृदय हमारा ही हमें है बताता।
सब शुभ-फल पाती हूँ किसी पुण्य ही का।
वह परम अनूठा पुण्य ही पापनाशी।
इस कुसमय में है क्यों नहीं काम आता॥30॥

प्रिय-सुअन हमारा क्यों नहीं गेह आया।
वर नगर छटायें देख के क्या लुभाया?।
वह कुटिल जनों के जाल में जा पड़ा है।
प्रियतम! उसको या राज्य का भोग भाया॥31॥

'मधुर वचन से औ भक्ति भावादिकों से।
अनुनय विनयों से प्यार की उक्तियों से।
सब मधुपुर-वासी बुध्दिशाली जनों ने।
अतिशय अपनाया क्या ब्रजाभूषणों को?॥32॥

बहु विभव वहाँ का देख के श्याम भूला।
वह बिलम गया या वृन्द में बालकों के।
फँस कर जिसमें हा! लाल छूटा न मेरा।
सुफलक-सुत ने क्या जाल कोई बिछाया॥33॥

परम शिथिल हो के पंथ की क्लान्तियों से।
वह ठहर गया है क्या किसी वाटिका में।
प्रियतम! तुम से या दूसरों से जुदा हो।
वह भटक रहा है क्या कहीं मार्ग ही में॥34॥

विपुल कलित कुंजें भानुजा कूलवाली।
अतुलित जिनमें थी प्रीति मेरे प्रियों की।
पुलकित चित से वे क्या उन्हीं में गये हैं।
कतिपय दिवसों की श्रान्ति उन्मोचने को॥35॥

विविध सुरभिवाली मण्डली बालकों की।
मम युगल सुतों ने क्या कहीं देख पाई।
निज सुहृद जनों में वत्स में धेनूओं में।
बहु बिलम गये वे क्या इसी से न आये?॥36॥

निकट अति अनूठे नीप फूले फले के।
कलकल बहती जो धार है भानुजा की।
अति-प्रिय सुत को है दृश्य न्यारा वहाँ का।
वह समुद उसे ही देखने क्या गया है?॥37॥

सित सरसिज ऐसे गात के श्याम भ्राता।
यदुकुल जन हैं औ वंश के हैं उँजाले।
यदि वह कुलवालों के कुटुम्बी बने तो।
सुत सदन अकेले ही चला क्यों न आया॥38॥

यदि वह अति स्नेही शील सौजन्य शाली।
तज कर निज भ्राता को नहीं गेह आया।
ब्रजअवनि बता दो नाथ तो क्यों बसेगी।
यदि बदन विलोकूँगी न मैं क्यों बचूँगी॥39॥

प्रियतम! अब मेरा कंठ में प्राण आया।
सच-सच बतला दो प्राण प्यारा कहाँ है?।
यदि मिल न सकेगा जीवनाधार मेरा।
तब फिर निज पापी प्राण मैं क्यों रखूँगी॥40॥