प्रेमगीत / फरोग फरोख़ज़ाद / श्रीविलास सिंह
मेरी रातें चमकती हैं तुम्हारे सपनों के उजले रंग से, मेरे प्रिय
और भारी हैं मेरे वक्ष तुम्हारी खुशबू से।
तुम भर देते हो मेरी आँखों को अपनी उपस्थिति से, मेरे प्रिय।
दे कर अधिक खुशी दुःख की तुलना में।
जैसे वर्षा धो देती है मिट्टी को
तुमने धो कर पवित्र कर दिया मेरा जीवन।
तुम हो धड़कन मेरे उत्तप्त शरीर की;
मेरी पलकों की छाँव में प्रज्ज्वलित एक अग्नि,
तुम हो गेंहूँ के खेतों से सुन्दर,
किसी स्वर्णिम डाल से अधिक फलों से लदे।
अंधेरे संशयों के आक्रमण के क्षणों में
तुम हो एक द्वार जो खुलता है सूरज की ओर।
जब मैं होती हूँ तुम्हारे साथ, मुझे नहीं होता भय किसी पीड़ा का
क्योंकि मेरी एकमात्र पीड़ा है प्रसन्नता की पीड़ा।
मेरा यह दुःखी हृदय और इतना हल्का?
कब्र की तली से आते जीवन के स्वर?
तुम्हारी आँखें हैं मेरी चरागाह, मेरे मधुर प्रेम
तुम्हारी निगाहों के चिन्ह दहकते हैं मेरी आँखों की गहराई में।
अगर तुम होते मुझ में पहले से, मधुर प्रेम
मैं न स्वीकारती किसी अन्य को तुम्हारी जगह।
ओह! यह है गहन पीड़ा, तीव्र चाह;
बहिर्गमन, स्वयं को अनावश्यक अपमानित करती;
उन सीनों पर सिर रखती जिन के भीतर थे कालिमायुक्त हृदय;
प्राचीन घृणा से मलिन करती अपना वक्ष;
देखती मित्रवत मुस्कानों के पीछे का विष;
धोखेबाज हाथों में सिक्के रखती;
खो जाती बाज़ारों के बीच में।
तुम हो मेरे जीवन की सांस, मेरे प्रिय,
तुम मुझे वापस लाये कब्र से जीवन तक।
तुम उतरे हो दूर आसमानों से,
दो स्वर्णिम पंखों वाले सितारे की भांति
चुप कराते मेरे अकेलेपन को, मेरे प्रिय,
मेरी देह को रंगते अपने आलिंगन की सुगंधि में।
तुम जल हो मेरे वक्षों की शुष्क धाराओं के लिए,
एक सोता मेरी नसों की सूख चुकी धरती के लिए।
इतनी ठंडी और अंधेरी दुनियाँ में,
तुम्हारे कदमों से मिलाते हुए कदम, मैं बढ़ रही हूँ आगे।
तुम छिपे हो मेरी त्वचा की तह में
प्रवाहित मेरी कोशिकाओं में,
मेरे बालों को दहकाते अपने स्नेहपूर्ण हाथों से।
तुम हो अजनबी, मधुर प्रेम, मेरे वस्त्रों से
पर कितने परिचित मेरी नग्नता के क्षेत्रों से।
ओ चमकीले और अनंत सूर्योदय,
दक्षिणी भूमि की तेज धूप,
तुम हो नई भोर से भी नए,
नए ज्वार से अधिक आर्द्र और ताज़गी भरे।
यह अब नहीं रहा प्रेम, यह तो है तेजोमय दीप्ति,
एक फ़ानूश जलता हुआ सन्नाटे और अंधकार के मध्य।
जब से प्रेम जागा है मेरे हृदय में
मैं हो चुकी हूँ कामना की भक्ति,
अब मैं नहीं हूं, नहीं हूँ मैं,
ओह व्यर्थ बीते वे वर्ष जब मैं जी रही थी "मैं" के साथ।
मेरे होंठ हैं वेदी तुम्हारे चुम्बनों की, मेरे प्रिय
मेरी आँखें प्रतीक्षारत हैं तुम्हारे चुम्बनों के आगमन की।
तुम हो मेरी देह में आनंदातिरेक का कंपन,
एक परिधान की भांति, मुझे आच्छादित किये तुम्हारी देहयष्टि।
ओह, मैं प्रस्फुटित होने को हूँ एक कली की भांति,
मेरे आनंद को ग्रहण लगाता यह क्षणिक शोक।
मैं चाहती हूँ अपने पैरों पर उछलना
और बरसाना अश्रु किसी बादल की भांति।
मेरा यह दुखी हृदय और सुगंधित जलन?
किसी प्रार्थना-कक्ष में तुरही और वीणा का संगीत?
यह रिक्ति और ऐसी उड़ानें?
यह मौन रात्रि और इतना संगीत?
तुम्हारी नज़र है जादुई लोरी सी, मेरे प्रिय
बेचैन शिशुओं के लिए पालना।
तुम्हारी सांसें हवा का अर्द्धसुप्त झोंका,
मेरे संताप के कम्पनों को प्रक्षालित करती;
यह छिपा है मेरे भविष्य की मुस्कराहटों में
यह डूब चुका है गहरे मेरी दुनियाँ की गहराइयों में।
तुमने छुआ मुझे कविता के आवेग के साथ
उड़ेलते हुए आग मेरे गीतों में
जगाते प्रेम का ज्वर मेरे हृदय में
इस तरह आग लगाते मेरी सारी कविताओं में, मेरे प्रिय।