प्रेमधारा / ‘हरिऔध’
उसका ललित प्रवाह लसित सब लोकों में है।
उसका रव कमनीय भरा सब ओकों में है।
उसकी क्रीड़ा-केलि कल्प-लतिका सफला है।
उसकी लीला लोल लहर कैवल्य कला है।
मूल अमरपुर अमरता सदा प्रेमधारा रही।
वसुंधारा तल पर वही लोकोत्तारता से बही।1।
रवि किरणें हैं इसी धारा में उमग नहाती।
इसीलिए रज तक को हैं रंजित कर जाती।
कला कलानिधि कलित बनी पाकर वह धारा।
जिससे हुआ पियूष सिक्त वसुधा तल सारा।
श्याम-घटा में प्रेम की धारा ही है सरसती।
इसीलिए वह सभी पर रस धारा है बरसती।2।
सब अग जग को गगन गोद में है ले लेता।
किसके मुख को तेज नहीं उज्ज्वल कर देता।
मंद मंद चल पवन मुग्धा सब को है करती।
देती है फल फूल रुचिर कृमि तक को धरती।
निज शीतलता से सलिल सब को करता है सुखित।
मूल प्रेम धारा प्रकृति पंचतत्व में है निहित।3।
रिपु के कर में भी प्रसून है बिकच दिखाता।
छेदन रत नख निचय सुरभि उससे है पाता।
जिसके कर से कटा दसन से गया विदारा।
फल करता है मुदित उसे स्वादित रस द्वारा।
तरु से धाया कब नहीं पाहन हन्ता को मिली।
परस प्रेम धारा नहीं किस की कृति कलिका खिली।4।
पाहन गठित अपार नेरु उर को सुद्रवित कर।
वह लहराती मिली रूप सरिसोतों का धार।
निकली सुरसरि सदृश कहीं पावन सलिला वन।
करके सफलित धारा धााम मल रहित मलिन मन।
मरुमहि भूति मतीर का सलिल सुशीतल है वही।
विविधा मूर्ति धार कर कहाँ नहीं प्रेमधारा बही।5।
ओस, तृणलता कुसुम विपट पल्लव सिंचन रत।
बहु तरु चंदन करी सुरभि मलयाद्रि अंक गत।
विविधा दिव्यमणि जनित ज्योति उज्ज्वल उपकारी।
बहु ओषधी प्रसूत शक्ति-जीवन संचारी।
जगत जीव प्रतिपालिका पय धारा उरजों भरी।
क्या है? नानामूर्ति धार प्रेमधार ही अवतरी।6।
जो सत्ता है नित्य सत्य चिन्मयी अनूपा।
संसृति मूली भूत परम आनन्द स्वरूपा।
विश्व-व्यापिनी विपुल-सूक्ष्म जिसकी है धारा।
वस्तुमात्र में है विकास जिसका अति न्यारा।
धारा ही में प्रेम की वह होती है प्रतिफलित।
इस सुमुकुर में ही दिखा पड़ी मूर्ति उसकी कलित।7।
बुझ जाता है कलह-विरोध प्रबल दावानल।
बह जाता है मोह मूल बहु मानस का मल।
जाता है सविकार मैल धुल जी का सारा।
गिर जाता है टूट टूट कर कुरुचि करारा।
धारा द्वारा प्रेम का ढह जाता है विटप मद।
किये अपार प्रयत्न भी टिकता नहीं प्रमाद पद।8।
बन जाती है सुछबिवती पर हित रति क्यारी।
हो जाती है सरस सुरुचि प्रियता फुलवारी।
धारा बंधुता मानवता की सिंच जाती है।
सहृदयता कृषि वांछनीय जीवन पाती है।
धारा ही से प्रेम की कल कृति विटपावलि पली।
सहज सुजनता वाटिका पुलकित हो फूली फली।9।
कपट-जाल शैवाल समूह उपज नहिं पाता।
मोह पटल र्आवत्ता नहीं पड़ता दिखलाता।
बुद्धि कुत्सित भाव कदापि नहीं उठ पाते।
नहिं नाना कुविचार फेन बहते उतराते।
कुमति मलिनता प्रेम की धारा में आती नहीं।
छल-छाया प्रतिबिम्बता कथमपि हो पाती नहीं।10।
मिलती हैं वे भावमयी लहरें लहराती।
जो कि मंजुतर मनुज मनों को हैं कर जाती।
भावुक जन वह रत्न-राजि अनुपम है पाता।
जिससे मंडित हो वसुधा को है अपनाता।
धारा में ही प्रेम का खिलता है वह कल कमल।
सुरभित होता है सुरभि से जिसकी सब अवनि-तल।11।
वीर उर बसी विजय प्रेम धारा के द्वारा।
है मृणाल के तन्तु-तुल्य लगती असि धारा।
निज प्रियतम के प्रेम धार में डूबी बाला।
गिनती है अंगार पुंज को पंकज माला।
शान्त हुआ इस प्रेम की धारा ही से वह अनल।
जिससे जन प्रहलाद को मिला अलौकिक भक्ति फल।12।
जिसे धान विभव विविधा प्रलोभन हैं न लुभाते।
हाव-भाव सुविलास जिसे वश में नहिं लाते।
रूप माधुरी बदन कान्ति कोमलता प्यारी।
नहिं करती अनुरक्त जिसे आकृति अति न्यारी।
अनुगत कर पाती नहीं जिसको बहु अनुनय विनय।
वश में करता है उसे अंतर प्रेम प्रवाहमय।13।
वे लोचन हैं लोक लोचनों को बेलमाते।
वे उर हैं संसार उरों में सुधा बहाते।
वह प्रदेश है भाव राज्य की भू बन जाता।
वह समाज है शान्ति शिखर पर शोभा पाता।
वांछित धृति से धर्म वे धारण करते हैं मही।
जिनमें समुचित प्रगति से पूत प्रेम धारा बही।14।
देश जाति कुल जनित भिन्नता चरित विषमता।
रुचि विचार आचार शील व्यवहार असमता।
परम कठिनता मयी मेदिनी है पथरीली।
होती है पा जिन्हें प्रेम धारा गति ढीली।
किन्तु इसी के अति सरस प्रबल प्रवाहों में पड़े।
वारिधि विविधा विभेद के बनते हैं जल के घड़े।15।
परम प्रशंसित राजकीय सत्ताएँ सारी।
बड़ी-बड़ी सामरिक विजय भूतल वशकारी।
प्रेम-प्रवाह-प्रसूत विजय सत्ताओं जैसी।
व्यापक हितकर हृदय रंजिनी उनके ऐसी।
किसी काल में कब हुई वैसी कोमल उज्जवला।
वे हैं बिजली की विभा ए हैं राकापति कला।16।
प्रबल नृपति आतंक, वाहिनी जगत विजयिनी।
प्रलय-कारिणी तोप रण धारा काल प्रणयिनी।
निधि उत्ताल तरंग मान गिरि पावक आवी।
जन-समूह कर आत्ता नाद पाहन उर द्रावी।
जिन वीरों के पवि उरों को न प्रभावित कर सके।
किसी प्रेम धारा मयी रुचि के हाथों वे बिके।17।
पावन वेद प्रसूत प्रेम की व्यापक धारा।
हुई प्रवाहित परम सरस कर भूतल सारा।
उससे भारत धारा यदि हुई स्वर्ग समाना।
तो पाया सुख अन्य अखिल देशों ने नाना।
मानव भूरे सित असित पीत लाल औ साँवले।
सदा इसी के कूल पर ललित हो फूले-फले।18।
वैदिक ऋषिगण परम सरल भावुक उर द्वारा।
बुध्ददेव के सदय हृदय का ढँढ़ सहारा।
ईसा और मुहम्मदादि अंतर कर प्लावित।
हुई प्रेम धारा मधाुमयता सहित प्रवाहित।
कई कोटि जन आज भी उसके प्रबल प्रभाव से।
बँधो एकता सूत्रा में रहते हैं सद्भाव से।19।
प्रति हिंसा प्रिय दनुज देवता है बन जाता।
विविधा विभव मद अंधा दिव्य लोचन है पाता।
पर स्वतंत्रता हरण पिपासा कुटिल पिशाची।
प्रबल राज्य विस्तार कामना सुमुखि घृताची।
बन जाती हैं देवियाँ सकल सदाशयता मयी।
पड़कर प्रेम-प्रवाह में हो पाहनता पर जयी।20।
कभी न लोहित अवनि रुधिर धारा से होती।
पर की ममता कभी नहीं मद धारा खोती।
कभी किसी का प्रकृत स्वत्व औ गौरव सारा।
नाश न होता कुटिल नीति धारा के द्वारा।
मनुजोचित अधिाकार भी कभी नहीं जाता छिना।
जो बह पातीं प्रेम की धाराएँ बाधाा बिना।21।
कहीं सामने देश भेद के मेरु खड़े हैं।
कहीं जाति बंधन के ऊँचे बाधा पड़े हैं।
कहीं भित्ति है धर्म भिन्नता कठिन शिला की।
कहीं कंकरों मयी धारा है रुचि प्रियता की।
किन्तु मेरु को बेधा कर औरों का करके दलन।
वह निकलेंगी प्रेम की धाराएँ अविछिन्न बन।22।
प्रकृत बात कब तक कुहकों में पड़ी रहेगी।
कब तक कटुता कूट नीति सत्यता सहेगी।
होंगे दूर विभेद परस्पर प्यार बढ़ेगा।
टले पयोद प्रमाद मयंक प्रमोद कढ़ेगा।
आवेंगे वे दिवस जब छटा बढ़ाती छेम की।
बहती होगी धारा पर अविरल धारा प्रेम की।23।
व्यापक धर्म समूह मूल सिध्दान्त एकता।
सब देशों के विबुधा वृन्द की वर विवेकता।
भ्रातापन का भाव जातिगत स्वार्थ महत्ता।
मानवता का मंत्रा विविधा स्वाभाविक सत्ता।
दूर करेंगी उरों से सकल अवांछित भिन्नता।
शमन करेगी प्रेम की धारा मानस खिन्नता।24।
उस दिन सारे देश बनेंगे शान्ति निकेतन।
फहरेंगे सब ओर सदा शयता के केतन।
सभी जातियाँ सभ्य सुखी स्वाधीन रहेंगी।
स्नेह तरंगों बीच उमंगों सहित बहेंगी।
होवेगी जनता सकल निज अधिकारों पर जयी।
हो जावेगी सब धारा प्रकृत प्रेम धारा मयी।25।