भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रेम-गगन / ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बदरा में चन्दा के जइसन,
अँचरा में सैंया छिपलन हे।
नैन-नचा के दे गलबँहिया,
अधर-सुधा रस भी चखलन हे।
उठल कलस कुच कोरक धइले,
कोंचिया के कस के धइलन हे।
आँख आँख में डाल नेह में,
पता न हे का का कइलन हे?
सुधियो नैं मनमा में आबे,
रास-रंग में का कहलन हे?
खुलल मधुर मन के बगिया में,
हवा बसन्ती बन बहलन हे।
कलिया जइसन देह नेह में,
खिलल सुधर रस के भरलन हे।
बतिया में रतिया कट गेलइ,
छन्द मिलल जे जे चहलन हे।
प्रेम-गगन में चान सुधा धर,
सुघर चाँदनी के गहलन हे।
रतिया सरकल भोर भेल का,
छोड़ कहाँ जा के पड़लन हे।
मान मनउल में रस बस के,
नेह-विटप के भी गड़लन हे।
ई ललना के लाल बिहारी,
घाम कठिन जग में सहलन हे।
रिझा-रिझा के झूम झूम के,
गीत मधुर मन से गइलन हे॥