भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रेम-तीन / ककबा करैए प्रेम / निशाकर
Kavita Kosh से
लगइए
कतेक फुरसतिसँ गढ़लक
प्रकृति
रूप, रंग आ रससँ पूर्ण बनेलक
अहाँकें
मुदा,
लगइए हमरा
प्रेम नहि भेल अहाँसँ
झंझट कीनि लेलहुँ।
अहाँसँ
प्रेम कयनिहार सभक
आँखिक बनि गेलहुँ
काँट
ओ सभ
हमर शोणितक पियासल लगैए।
लगैए
छिना जाइत छैक
चैन तखन हासिल होइत छैक
प्रेम।