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प्रेम-पिआसे नैन / भाग 1 / चेतन दुबे 'अनिल'

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दुनिया भर में भटकते, प्रेम-पिआसे नैन।
कर्णकुहर हैं तरसते, सुनने को प्रिय- बैन ।।

प्रेम न कोई खेल है, है खाँडे की धार।
एक प्यास इस पार है, एक प्यास उस पार।।

प्रेम बिना जीवन लगे, फ्रेम बिना तस्वीर।
बिना प्रेम मिलती नहीं, सपनों की जागीर।।
                 
हे विधना! कैसा रचा, तूने यह संसार।
किसी-किसी को पीर दी, किसी-किसी को प्यार।।

विधना ने कैसी रची, मस्तक बीच लकीर।
उन्हें प्रणय - सागर दिया, मुझे पीर-ही-पीर।

विधना ने कैसा दिया, नदी-नाव संयोग।
मुझको केवल योग है, उन्हें भोग- ही-भोग।।

रे मन ! क्यों बेचैन है, छोड़ प्रिया की आस।
पतझर को ही मान ले, अब मधुमय मधुमास।।

रे मन ! अब तू भूल जा, करना उससे प्यार।
एक म्यान में एक ही, रहती है तलवार।।

मन बैरागी हो गया, सपने हुए फ़कीर।
प्रणय-सिन्धु-तट पर खड़ा, ठोंक रहा तक़दीर।।

जब से उनको हो गया, मुझसे पूर्ण विराग।
आँखों में सागर घिरा, हृदय आग- ही- आग।।