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प्रेम कविताएँ - 3 / मंजरी श्रीवास्तव

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प्रेम की अपनी एक भाषा होती है
अलौकिक भाषा...
जो अधिक मुखर होती है होंठों से...ज़ुबान से ।
समयातीत यह भाषा
सम्पूर्ण सृष्टि में एक-सी होती है
और होती है एक शान्त झील-सी
जो गाती हुई नदियों को अपनी गहराई में समेटकर उन्हें शान्त कर देती है ।

प्रेम पवित्रतम रुहों के इर्द-गिर्द फैले प्रभामण्डल से फूटनेवाली किरणों से शरीर को आलोकित करता है
और छोड़ जाता है शरीर के पहाड़ों पर डूबते सूर्य के पीले चुम्बनों के निशान ।
एक स्वर्गिक गीत है प्रेम
जो हर्ष से शुरू होकर विषाद पर ख़त्म होता है ।
आत्माओं से ऊँची-ऊँची लपटें उठने लगती हैं
जब हम होते हैं प्रेम में ।
प्रेम एक प्याला है
जो पिलाता है ख़ुशी और ग़म दोनों के घूँट ।