प्रेम कविताएँ - 5 / मंजरी श्रीवास्तव
तुम्हारी रूह ने सुना
फूलों की फुसफुसाहट और मौन के संगीत के साथ
मेरी आत्मा की पुकार और मेरे दिल की तेज़ धडकनों को भी ।
मैंने भी सुनी
रात के सीने से आती आवाज़
और दिन के हृदय में गूँजती पुकार भी
हवा में धड़कता और परिन्दों-सा उड़ता
वह आनन्ददायक संगीत भी सुना मैंने जिसने
सारी सृष्टि को चन्द लम्हों के लिए रोमांचित कर रखा था ।
अब मैं जान गई थी कि
आकाश से ऊँची
सागर से गहरी
जीवन-मृत्यु और समय से भी अनजानी कोई चीज़ है ।
तुम मेरे लिए एक ख़ूबसूरत सपना भी हो और तल्ख़ हक़ीक़त भी
मेरे लिए सबसे ऊँचा ख़याल भी तुम्ही हो
और मेरी आत्मा को अभिभूत करनेवाली भावना भी
तुम्हारा प्यार एक ऐसा फूल है जो बेमौसम भी खिलता और बढ़ता रहता है ।
रात की ठण्डी हवा में मिली हुई बिजली की लहरों-सा है तुम्हारा प्यार
जो रह-रहकर मेरा पूरा जिस्म, पूरा वजूद सिहरा देता है ।
तुम्हारी याद मेरे दिल को पिघला देती है और मेरी रुह में मिठास और पवित्रता भर देती है ।
मैं अभी भी नहीं भूली हूँ
जादू से भरा वह एक मूक क्षण, वह एक शान्त लम्हा
जब मेरी साँसों में अनायास ही ठहर गए थे तुम
मेरी आँखें आसमान पर जाकर ठहर गईं थीं और
जीवन की मधुरता और कड़वाहट से मिश्रित अलौकिक मदिरा भरा प्याला बन गई थी मैं ।
आह...!
कितनी रहस्यमयी रात थी वह...कितनी महान ...!
जब तुम मेरे लिए रोशनी और गीत बन गए थे....और अब...
अब पंख बन गए हो ।
मैंने तुमसे माँगा ऐसा प्यार
जैसे कोई कवि अपनी दुखभरी भावनाओं को याद करता है
जैसे एक यात्री
शान्त तालाब को याद करता है
जिसमें पानी पीते हुए उसने अपना प्रतिबिम्ब देखा था ।
जैसे एक माँ अपने उस बच्चे को छाती से चिपकाए रोती है और याद करती है
जो रोशनी देखने से पहले ही मर गया ।
जैसे एक दयालु राजा उस क़ैदी को याद करता है
जो क्षमा की ख़बर पहुँचने से पहले ही मर गया हो ।
तुमने भी बिलकुल वैसे ही किया मुझे प्यार
तुमने अपनी रूह को बनाया मेरी आत्मा का आवरण
अपने दिल को मेरे सौन्दर्य का निवास
और अपनी छाती को मेरे दुःखों की क़ब्र
तुमने मुझे प्यार किया ऐसे
जैसे वसन्त को प्रेम से चूमती रहती है वृक्षहीन भूमि ।
तुम मेरे भीतर पलने लगे सूर्य की किरणों से पल रहा फूल बनकर
तुमने मेरे नाम के गीत गाए ऐसे
जैसे गाँव के गिरजाघर की घण्टियों की प्रतिध्वनि को वादियाँ दोहराती हैं ।
तुमने सुनी मेरी अन्तरात्मा की आवाज़ ऐसे
जैसे समन्दर का साहिल सुनता है लहरों की कहानी ।
तुमने मुझे प्रेम किया ऐसे
जैसे कोई परदेसी करता है अपने देस को
जैसे कोई भूखा रोटी को
जैसे सिंहासन खोकर राजा अपने वैभवशाली दिनों को
और क़ैदी आज़ादी और आराम के दिनों को ।
तुमने मृत्यु की घाटी में मुझे पूजा
मेरे प्रेम की मूर्ति बनाकर
मेरे प्रेम को मदिरा बनाकर पिया तुमने
वस्त्र बनाकर पहना
मेरा प्रेम हौले-से तुम्हारे गाल पर थपकी देकर
सुबह तुम्हें नींद से जगाकर
दूर खेतों में ले जाता रहा लम्बी अवधि तक ।
दोपहर को पेड़ों की छाया बनकर तुम्हें आराम देता रहा
और पंछियों के साथ सूर्य की गर्मी से बचाता भी रहा ।
वही प्रेम शाम को सूर्यास्त से प्रकाश को विदा दिलवाता रहा
और आसमान में काले भुतहे बादल दिखाता रहा ।
हर रात लेता रहा प्यार तुम्हें आलिंगन में
और मैं सपने देखती रही स्वर्ग के
जहाँ प्रेमी और कवि रहते हैं ।
मेरे प्रेम ने वसन्त में चलाया तुम्हें नील-पुष्पों के साथ
शीत में पिलाई शबनमी प्रेम की बूँदें लिली के प्यालों से
गर्मियों में तुम्हारा प्यार बन गया सूखी घास का तकिया और हरी घास का बिस्तर मेरे लिए
हम देखते रहे चाँद-तारों को एकटक
और आसमान के नीलेपन ने हमें बाँधे रखा अपने बाहुपाश में ।
तुम्हारे प्रेम में
मैंने किया पतझड़ से भी प्रेम
और अँगूरों के बाग़ में जाकर बेलों से सुनहरी अँगूरों के गहने उतरते देखे
प्रवासी पंछियों के झुण्ड मेरे सर पर मण्डराते रहे और
सर्दियों में मैं लोगों को सुनाती रही अलाव के पास बैठकर
उस दूर देस की कहानियाँ
जहाँ जा बसे थे तुम कभी
मुझे छोड़कर ।