प्रेम कविताएँ - 7 / मंजरी श्रीवास्तव
मेरी आत्मा
प्रेम के भोर के चुम्बन के साथ जागृत और झँकृत होती है.
मेरी झुकी हुई हाथीदाँत-सी गर्दन पर प्रेम लगाता है अपने चुम्बन की मुहर और मेरे गाल
पहाड़ों के पीछे से झाँकती सुबह की रश्मियों-से लाल हो उठते हैं ।
सुबह से शाम तक न जाने कितनी बार उतरती हैं सूर्य-रश्मियाँ मेरे जिस्म में
और शाम ढले मैं चुपचाप तकती रह जाती हूँ
ढलते सूरज की किरणों से झाँकते हुए रंगीन बादलों को ।
हमारी इन गुप्त मुलाक़ातों की ख़बर होती है सिर्फ़ उस मीनार के ऊपर उड़ते कबूतरों के झुण्डों को
और मेहराबें हमारे मिलन की मूक गवाह बनी रहती हैं
जिनके साए में चूमते हो तुम मेरी पेशानी और आज़ाद कर देते हो मुझे सूरज की किरणों-सा
हवाओं-सा ।
तुम्हारे प्रेम में
ऊँचे पहाड़ों के अन्तिम सिरे...अन्तिम नुकीली चोटी को छू आता है कई-कई बार मेरा मन ।
दौड़कर भाग आता है फिर-फिर तुम्हारे पास
भरता है तुम्हें अपने आगोश में ऐसे
जैसे एक माँ अपने इकलौते बच्चे को ।
प्यार सिखाता है मुझे
तुम्हें महफूज़ रखना हर बला से
सौ तालों में बन्द रखना और यहाँ तक कि ख़ुद से भी तुम्हें बचाना ।
अगले ही पल सिखाता है तुम्हें और ख़ुद को इतना आज़ाद कर देना
कि हम न भागें एक-दूसरे का पीछा करते-करते दूर देश में ।
न जाने किस अनजानी प्रेम-अगन में तपकर पवित्र हुआ हमारा प्यार
आकांक्षाविहीन हो चुका है
ताकि हम आज़ाद रह सकें.
सीमाओं में बँधा प्यार ही प्रिय पर अधिकार चाहता है
असीमित प्यार खुद को ही चाहता है ।
हमारा प्यार हर रोज़ पैदा होता है आसमान की गोद में
उतरता है रात के रहस्यों के साथ ज़मीन पर और
विलीन हो जाता है अनन्त और शाश्वत में ।
प्रेम हमेशा मुझे नए संकल्पों के साथ सामने लाता है ।
कभी उस संकल्प के साथ
जो बेड़ियों पर हँस सकता है और रास्ता छोटा कर सकता है
कभी एक डरी हुई प्रेतनी
और कभी एक बहादुर स्त्री के संकल्प के साथ भी ।