प्रेम कविता-1 / एड्रिएन सिसिल रिच
इस शहर में जहाँ भी, स्क्रीन जगमगाते हैं
पोर्नोग्राफ़ी से, विज्ञान कथाओं के राक्षस
भाड़े के पीड़ित लोग कीड़ों से बिलबिलाते हैं,
हम को भी बढ़ना होता है… सिर्फ़ वैसे ही जैसे
हम चलते हैं
वर्षा से भीगे कचरे के बीच से, टेबलायडी
क्रूरताओं के
हमारे अपने ही पड़ोस की ।
अपनी ज़िन्दगियों को समझना है हमें उन बासी सपनों से बिना अलग हुए,
जो बजते हैं बेसुरे मैटल संगीत से
वे अपमान,
और लाल बेगोनिया<ref>एक फूल</ref> खतरनाक तरीके से
लटका चमक रहा है
रिहायशी बिल्डिंग की छह मंज़िला ऊँची अटारी से,
या लम्बी टाँगों वाली छोटी लड़कियाँ खेलती हैं बॉल
जूनियर हाईस्कूल के मैदान में ।
हमारे बारे में किसी ने कल्पना नहीं की है । हम चाहते हैं
रहना पेड़ों की तरह, सीकामोरे<ref>एक किस्म का अंजीर का पेड़</ref> दमदमाते हैं तेजाबी हवा के बीच,
घावों से भरे, फिर भी प्रमुदित खिलते,
हमारी पाशविक कामनाओं की जड़ें हैं शहर में ।