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प्रेम के गर्भ से बाहर / प्रभात त्रिपाठी

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कितनी सारी स्त्रियों के दुख में
निरन्तर अपनी यातना को जानती
अपने समय के क्रूर और मज़बूर चेहरों को
अपने सहज स्वभाव में पहचानती
जिस स्त्री के प्रेम के गर्भ में
मैं रहा पूरे नौ महीने तक
उसे बाहर आकर देखने का पहला अनुभव
आशकाओं और भयों से भरा
तेज़ रफ़्तार बाहर का भगता हुआ समय था,

निरापद गर्भ के आत्मीय अन्धेरे से परे
जिस चेहरे के रू-ब-रू मैं खड़ा था
बेसिलसिला लफ़्ज़ों के चरमराते नन्हे पुल के छोर पर
वहाँ दूसरे छोर पर खड़ी उस औरत के वत्सल चेहरे का
आंगिक रचाव क़े टीसते ताज़ा घाव-सा
तड़पाता था मुझे
जन्म के बाद
जन्मान्तर के इस अजीबोगरीब संसार में

बेशक वहाँ प्यार था
अनेकार्थी व्यंजनाओं में उन्मुक्त और मगन
जैसे साक्षात बचपन खोज रहा हो
माँ के स्तनों से आती जिजीविषा की पुकार
जैसे हर चीज में हो खिलौने का सुन्दर आकार
जैसे चटक और प्रसन्न रंगों के विस्तार में विस्तिम नेत्र देखते हों
वनस्पतियों पशुओं मनुष्यों और उनके घरों के
सगुण रूपाकार

पर टीसता था कुछ, टीसने से ज़्यादा डरता था
उसकी आँखों की निश्छल तन्मयता का आकास्मिक पड़ाव
जैसे कि मैंने कहा
एक घाव था
जन्म-जन्मान्तरों से विविध रूपों में परिचित
यह ज़ख़्म
मुमकिन है मेरा अपना भरम हो
मेरे ही अज्ञान या ज्ञान के उलझ-पुलझ गए
जल में फँसी मछली की तड़प गवाह हो
शायद मेरा यह बयान
जो कि अंन्ततः है तो कथा
बून्द में समुद्र देखते अनजान बचपन की

पर वही अपने डर में मुझे दिखाती थी
ऐसी बहुत सारी सुखी सफल समृद्ध औरतें
बहुत सारे सुसंस्कृत मर्द
बदहवास आपा-धापी में बेदम दौड़ते वह स्त्री-पुरुष
यहाँ तक आकर वे अभी खड़े हैं
उसे चारों तरफ़ से घेरकर उसे ललचाते हुए उसे ले जाते हुए
इस मकान से उस मकान तक
इस दुकान से उस दुकान तक
इस सुनसान से उस सुनसान तक
और कभी यह कि वह दुख भी
एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे और अनन्त शहरों में
लगभग हर किसी को हमशक़्ल की तरह देखती
भूलती जा रही है
दुख का वह नन्हा पौधा
जिसे निरन्तर सींचते के संकल्प से
हुई थी शुरूआत जीवन-कथा की

पूरे नौ महीने बाद गर्म से बाहर आते ही
किसी बच्चे का सोचने लग जाना
महज असामान्य ही नही, एक अद्भुत घटना है
दहशत और वहशत को को दूसरे में मिलाती
इस घटना के बारे में
जो अख़बार की कुछ नहीं छापते
उन्हीं सूचनाओं के वैश्विक बाज़ार की ओर
बढ़ते उसके क़दमों को उसकी पीठ को, उसके छितरे सघन केशों को
छलछल आँखों से ताकता मैं जो कुछ सोच रहा हूँ
हो सकता हे, वह आदिम पुरूषोचित्त अधिकार उससे जन्मी
सहज स्वाभाविक ईर्ष्या हो
पर बार-बार आँखों की कोरों तक आती
इस नमी के भीतर
शायद कोई आदमी और है

शायद वही है जो उसे दूर जाते देखता
सिर्फ़ सोच रहा है अपना डर
अपनी पराजय अपनी असफलता
अपनी अकारथ ज़िन्दगी की
ढलान के आख़िरी छोर पर
होने के निस्सार अनुभवों में मौजूद
अबोध वजूद की व्यथा को
एक चुस्त-दुरूस्त चाक-चौकस औरत की नई रंगत में
बिलकुल सगुण साकार

और वहाँ उसे दीख रहा है
बीसवीं से इक्कीसवीं पर पैर रखती सदी के यौवन का
पहला शाट  : प्यार
और दूसरा और तीसरा और चौथा और अन्तिम

बाज़ार
प्रेम के गर्भ में पूरे नौ महीने रहकर
बाहर आने के बाद बाज़ार
याने
क्रेता-विक्रेता, नेता-अभिनेता, अफ़सर-व्यापारी
सैनिक-नागरिक, औरत और मर्दों से भरे
इस समकालीन संसार में
लगभग छलछल आँखों में नमी लिए
इस आदमी की प्रेमकथा की यह इबारत, मौत के पहले की उसकी आख़िरी
प्रार्थना
की तरह पढ़ी जाए या न पढ़ी जाए, पर इतनी इल्तजा तो फिर भी है कि
ऐसी
फ़िल्में न बनाई जाएँ जिनमें प्यार के पहले शाट के बाद बाज़ार के
अनगिनत शाट का
अनन्त सिलसिला सिर्फ इसलिए कायम रहे कि इस दुनिया में आए हैं तो
हर किसी को
यह हक है बल्कि यह उसका फ़र्ज बनता है बल्कि इसी में उसकी मनुष्यता है कि उसे कुछ कर
दिखाना चाहिए, याने उसे वही गाना बजाना चाहिए जो बाजार में ऊँची से ऊँची
क़ीमत पर
बिके, ताकि उसका बारबार और सारा परिवार एक सुखी परिवार की तरह
रह सके और कभी-कभार या रोज़ाना पूजा के वक्त उचार सके -- ओम शान्ति ---!, शान्ति------! शान्ति----!