प्रेम धारा / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र
आज बहुत दिनों के बाद
समुद्र के किनारे बैठ कर देर तक,
आती-जाती हुई लहरों को देखता रहा
सोचता रहा,कौन हैं ये लहरें
क्या है मेरा और इनका सम्बन्ध
पहले भी अक्सर मैं
अकेले होने पर इनसे मिलने आता रहा हूँ।
मेरे आने पर पर ये लहरें
मुझे देखकर बहुत आनंदित होकर
मेरा स्वागत करती थीं।
बहुत सारी बातें हम आपस में करते थे,
मुझे अच्छा लगता था
उनका बाहें फैलाकर कर दौड़ते हुए आना,
सुंदर संगीत, स्नेह और आत्मसात का आमंत्रण,
मुझे भी लहरों से असीम प्रेम था।
यह मेरे जीवन का आवश्यक और अनिवार्य अंग था।
मुझे बहुत प्रिय था वह क्षण
जाती हुई लहरें मुझे उदास कर जाती थी,
परन्तु पुनर्मिलन का वचन देकर
हम दोनों दुखी मन से विदा लेते थे
यह उनका और मेरा प्रेम था।
मैं सबसे अपनी प्रेम कहानी कहता था।
एक दिन किसी ने मुझसे कहा
तुम लहरों से प्रेम करते हो?
तुम सोचते हो
लहरों का आना और जाना तुम्हारे लिए है?
यह तुम्हारी नादानी है
लहरों का आना जाना तो एक क्रम है
जो निरंतर चलता रहता है
वो लहरें तुम्हारे न होने पर भी उसी तरह चलती हैं।
मैं स्तब्ध रह गया,
जैसे किसी ने आसमान से जमीन पर ला दिया हो
सुनकर अच्छा न लगा
उस पर विश्वास भी न हुआ
सोचा लहरों को छुपकर देखूं,क्या
वे सचमुच मेरे बिना भी खुश रह सकती हैं
पाया,यह सत्य था
उनका अनवरत और अबाधित क्रम किसी के लिए नहीं,
बल्कि यह तो उनका कार्य है
निश्चित रूप से यह मेरा भ्रम था
पर मुझे यह भ्रम बेहद प्रिय रहा है
आज भी जब मुझे उनका प्रेम याद आता है
आँखों से आंसुओं की धारा बह निकलती है
क्योंकि मेरा उन लहरों से अटूट प्यार था
इसमें लहरों का कोई दोष नहीं