प्रेम निष्काषित माना जाएगा / रश्मि शर्मा
प्रेम, धीरे-धीरे सूखता जाएगा
चाहेगा मन, फिर से सब एक बार
मगर जरूरत नहीं होगी
साथ-साथ रहते, साथ-साथ चलते
सारे सवाल भोथरे हो जाएँगे
जवाब की प्रतीक्षा अपनी उत्सुकतता खो बैठेगी
पाने की आकांक्षा, खोने का दर्द
एकमएक लगने लगेंगे
धूप- छाँव सा मन
एक ही मौसम को सारी ईमानदारी सौंपेगा
मन रेगिस्तान
या किसी हिल स्टेशन की
ठंढ़ी सड़क सा बन जाएगा
आत्मा निर्विकार
भावनाओं का गला घोंटकर
सबको परास्त करने में लग जाएगी
नहीं सोचेगा कोर्इ भी
किसी की पीड़ा, किसी की चाहत
सब दौड़ते नजर आएँगे
एक-दूसरे को कुचलते-धकियाते
वक्त किसी के लिए नहीं रूकेगा
क्रोध के दिल से निकलते ही
सबसे पहले अधिकार झरेगा
फिर प्यार
हम साथ-साथ जीते हुए
अनदेखे फ़ास्ले तय करते जाएँगे
बहुत बड़ी हो जाएगी अपनी-अपनी दुनिया
हम दिखा देंगे खुद को खुशहाल , मगर
हमारी आत्मा में बसी खुश्बू
हमसे ही दूर होगी
वक्त थमेगा नहीं, लोग आक्रामक और
असहनशील होंगे
ह्दय से करुणा विलुप्त होगी
शर्म महसूस होगी
अपनी तकलीफों और आँसुओ को दर्शाने में
मन क्रूर और वाणी विनम्र होगी
चेहरा दर्पण से जीत जाएगा
और बचा प्रेम
धीरे-धीरे बंद मुट्ठियों से निकल जाएगा
दिल
किस्मत को कोसता पत्थर हो जाएगा
सीने पर नहीं ठहरेगा फिर
हरेक इंसान के हाथों में अस्त्र की तरह पाया जाएगा
इस तरह प्रेम
समूची पृथ्वी से निष्काषित माना जाएगा।