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प्रेम पर कुछ बेतरतीब कविताएँ-3 / अनिल करमेले

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मैं कैसे कहूँ
चुप रहूँ तुम्हारे लिए
फिर भी कहूँ

तुम नहीं तो कुछ भी नहीं है मेरे पास
बस तुम ही रहतीं
कुछ और कब चाहिए था

मैं कैसे कहूँ
कि तुम सुन लो और यकीन कर लो।