प्रेम भी गुनाह है / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय
प्रेम की बात करना
जीवन का बड़ा गुनाह है अब यहाँ
हमारे आका ने सुनाया है फरमान
कि देखना किसी को भी प्रेम से प्रेमी की तरह
गर्चे कि, जीव हो या मनुष्य, गुनाह है अब यहाँ
जो भी हो नहीं है अपना
कम से कम यह तो मानकर है चलना
विदेश का हो तो उसको यह कहना कि अपना है
हो अपने परिवेश का तो उसको यह मानना कि अपना है
सपना है वह सब कुछ आज के परिवेश में अब यहाँ
प्रीति की रीति के साथ पेश आना
किसी भी सूरत-शक्ल में नहीं है अपराध क्षम्य
हमारे हर क्रियाकलाप यहाँ के लिए हो सकते हैं बोधगम्य
अपने सुख के लिए आगत की फसलों को भी सुख देने की परिकल्पना
समय-समाज के नजरिये से जीवन-जगत में बड़ा अपराध है अब यहाँ
इसीलिए अब यहाँ कहीं भी
नहीं दिखाई देते आदमी इंसान की तरह
सभी चाहते हैं सुरक्षा सब से बचते हुए यहाँ अब
सभी के हैं अपने हथियार तने हुए अपनी देखभाल में आजकल
छोड़कर मनुजता के पथ सभी हो गये हैं आतंकवादी अब यहाँ