प्रेम राज्य में निज-सुख-इच्छा / हनुमानप्रसाद पोद्दार
प्रेम-राज्य में निज-सुख-इच्छा-अपने मनकी कोई चाह।
प्रेम-मार्ग की भारी बाधा, उपजाती अतिशय उर-दाह॥
इन्द्रिय-सुख की तनिक वासना भी है इसमें भारी पाप।
बड़े पारखी हो तुम, प्रियतम ! नित्य परखते रहते आप॥
निज जनका यह पाप मिटाने, रहते सदा सजग तुम, नाथ !
तनिक न करते उसके मन की, देते नहीं कभी भी साथ॥
इसपर जो अति असंतुष्ट हो, दोष देखती करती रोष।
छोड़ बैठती भजन अधम वह, बन जाती दोषोंकी कोष॥
पर जो भजन त्याग नहिं करती, नहीं त्याग करती विश्वास।
मनकी इच्छा पूर्ण कराना मूर्ख चाहती बिना प्रयास॥
इस प्रकार जो तुमसे कहती पूरी करने मनकी साध।
होती क्षुध-दुखी, तब उसका नहीं देखते तुम अपराध॥
कर देते तुम उसके मनकी, होती वह यदि शुचि निर्दोष।
पर देते न प्रेम तुम उसको, जबतक उसे न आता होश॥
रह जाती वचित वह, पाकर कृपा तुम्हारी का संयोग।
भजनशील होकर भी मूढ़ा, प्रेम नहीं पाती, रत-भोग॥
भाग्यवती जो प्रेम-परीक्षा दुर्गम में होती उत्तीर्ण।
विघ्र तुरंत नष्टस्न् हो जाते सारे उसके, होकर जीर्ण॥
भोग-मोक्ष की-अपने सुखकी सारी इच्छाका कर त्याग।
करती सदा तुहारे मनकी, कर प्रियतम-सुखमें अनुराग॥
देकर उसे प्रेम अति पावन, होते तुम उसके आधीन।
उसके तन-मनमें आ बसते, करते उसको निजमें लीन॥
तुमने ही दिखलाया मुझको स्नेह-सहित यह परमादर्श।
इससे रही न जगकी साा, रहा न कोई हर्ष-अमर्ष॥
अनुभव यह हो रहा-’तुहारे सिवा नहीं कोई भी और’।
अपने में अपनी ही लीला तुम कर रहे रसिक-सिरमौर॥