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प्रेम / शब्द प्रकाश / धरनीदास
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धरनी प्रेम न पागिया, फेरि बिगारिय भेस।
मनको शिर मूंडयो नहीं, कहा मुंडाये केस॥1॥
धरनी सब परपंच है, एक प्रेम है सांच।
परै फतिंगा आगिमें, माखी सहै न आंच॥2॥
प्रेम जहाँ जहँ उपजै, धरनी यहि संसार।
तहां तहां उठि भागिया, नेम अचार विचार॥3॥
प्रेम-प्रकाश प्रकाश जेहि, धरनी ता बलि जाय।
प्रेम-विह्वने मानवा, कत जग जन्मे आय॥4॥
धरनी प्रेम-प्रवाह में, वार पार कछु नांहि।
सुरपुर नरपुर नागपुर, प्रेम एक ही माँहि॥5॥
जाको जैसो प्रेम है, सहज मिले मगु सोय।
पराचीन परिचय नहीं, धरनी फिर ना होय॥6॥