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प्रो० वरयाम सिंह / केदारनाथ सिंह

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ताज़ा-ताज़ा
सेब की गन्ध लिए
वे लौटे थे बंजार से
कि मैंने धीरे से पूछा — 
अबकी सेब की फ़सल कैसी, वरयाम जी !

'ख़राब' — उन्होंने कहा
फिर जोड़ा — 
जो बची है उसे भी पक्षियों से डर है ।

— पक्षियों से डर !

— 'हाँ-हाँ, पक्षियों से डर !
वे झुण्ड के झुण्ड इस तरह आते हैं
जैसे वह उन्हीं का बाग़ हो
और मुश्किल यह कि पक्षी का जुठाया सेब
कोई पूछता तक नहीं बाज़ार में’

कहकर वे हो गए चुप
पर मैंने सुना उनके होंठ
स्वगत बुदबुदा रहे थे — 
बाग़ चाहे मेरा हो
पर सेब तो उन्हीं के हैं

मैंने देखा उस समय
उनका पहाड़ी चेहरा
लग रहा था पूश्किन के
किसी छन्द की तरह ।