फकीरी वेश बना तन को / कमलानंद सिंह 'साहित्य सरोज'
सियावर जाते वन को । फकीरी वेश बना तन को ॥
शीस जटा सोहे भली, बसन पेड़ की छाल ।
कर मे तीर कमान है, गज मतवाली चाल ॥
हुआ दुख अवधपुरी जन को ।
सियावर जाते वन को ।
फकीरी वेश बना तन को ॥
महल ओर रोते चले, बूढ़े और जवान ।
समझाने नृप को तहाँ, खोए सुध बुध ध्यान ॥
चैन नहिं कुछ भी है मन को । सियावर जाते वन को ।
हम सब तेरी हैं प्रजा, सुनु दशरथ महाराज ।
हमरो दुख दुर किजीए, रामहि देके राज ॥
सुनो मत तिय के बैनन को ।
सियावर जाते वन को ।
फकीरी वेश बना तन को ॥
राम लखन अरू जानकी, सुन्दर कोमल गात ।
हाय इन्हें वन भेजते, पितु बन इनके तात ॥
अभी तक रख के जीवन को । सियावर जाते वन को ॥
अवध नगर सूनो कियो, लखि ‘सरोज’ अभिराम ।
पितु प्रण पालन के लिये, त्यागि बन्धु सुख धाम ॥
छोड़ि के मोह प्राण धन को ।
सियावर जाते वन को ।
फकीरी वेश बना तन को ॥
राजा साहब ने यह रचना स्वप्नावस्था मे की थी । एकाएक स्वप्न भंग हो जाने पर उन्होंने इसे लिपिबद्ध किया