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फलक के जिस्म पै ज़ख्मों की ज़ेरवारी थी / महेश कटारे सुगम
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फलक के जिस्म पै ज़ख्मों की ज़ेरवारी थी ।
सितारों चाँद की शक़्लों में जो सजा ली थी ।
वही थी रात अमावस की उसी मौसम की,
हमें थी तीरगी उनके लिए दिवाली थी ।
लवों के सामने दहशत का सख़्त पहरा था,
हक़ीक़तों को बयां करने की मनाही थी ।
मिटाया ख़ुद को कि मिट जाए ज़ुल्म का आलम,
कि अपने आपको मैंने ही ख़ुद सज़ा दी थी ।
तमाम ज़श्न मुहब्बत के पड़ गए फीके,
निगाह एक जो नफ़रत के घर में डाली थी ।