भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फ़ज़ा में ख़ुशबू बिखर गई है चमन में छाई बहार देखो / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फ़ज़ा में ख़ुशबू बिखर गई है चमन में छाई बहार देखो
लिबास कुदरत बदल रही है गुलों पे आया निखार देखो।

उठो हक़ीक़त से रूबरू हो चको बुलंदी को चूम लें हम
मिटा दो एहसासे-कमतरी को पलट पलट मत दरार देखो।

तराश कोई रहा है देखो जदीद चेहरा ग़ज़ल में अपनी
ग़ज़ब की शकलें बना रहा है पिघल-पिघल खुद कुम्हार देखो।

गले लगा लो अभी हमें तुम भले लगाना नहीं दुबारा
अभी अभी बेक़रार होकर किया ये हमने क़रार देखो।

कभी किसी बुत-कदे से जाकर गुनाह क़ुबूल करना
तुम्हें तुम्हारा खुदा मिलेगा गुरुर ऊना उतार देखो।

इसी ज़मीं पर बकौल वाइज़, नसीब जन्नत ज़रूर होगी
हो चाक-दामन कि पाक दामन सभी में परवरदिगार देखो।

हुए तुम्हारे ये जिस्मो-जां अब सनद ये 'विश्वास' आज लिख दी
ये कौल ज़िंदा रहेगा ऊना कभी भी चाहो पुकार देखो।