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फ़र्क / गोविन्द कुमार 'गुंजन'

मुझे खिले हुए फूल देखना भाता है
उसे फूल खिलाना आता है

उसके हांेठों पर मुस्कुराहट है
मेरी आँखों में सपना
मेरे सपने का कुछ हो ना हो
उसकी मुस्कुराहट का एक वैभव है अपना

मैं कवि हॅूं तो क्या
शब्दों से भी छला जाता हॅूं
शून्य में भी चला जाता हॅूं
कुछ भी नहीं हो पाता हॅूं

वह कवि नहीं तो क्या
उसे शब्दों का नशा नहीं
मैं कभी उसके जैसा हँसा नहीं
यही फर्क है उसमें और मुझमें

मुझे खिले हुए फूल देखना भाता है
उसे फूल खिलाना आता है