फ़र्क / राहुल कुमार 'देवव्रत'
कुछ तो था दरम्यां हमारे
कि इतनी चिल्ल-पों के बावजूद
भरोसे के तार मजबूत ....
.... और मजबूत होते चले गए
कहा था...
ये बिलावजह की सरमायेदारी
हको हुकूक से बात बात पर टोकना
पसीना पोंछना , हवा करना
ऐसे ही हक़ और रौब़ से
बाहर भी करोगे एक दिन .... बिलावजह
तुम कोई चीज सलीके से नहीं रखती
मिलती ही नहीं वक्तेजरुरत पर
ऐसे ही किसी दिन देखना
तुम्हारे पास रखी सारी चीजें घुटकर मर जाएंगी
तुम्हें जाना है
......जाओ
मगर आना कभी घूमते
उन ईंट गारों के मकां
कंगूरों , छज़्जों , छतों के पास
जहां हर अनसुलझे सवाल सही हो जाया करते
सिर्फ साथ वक्त बिता लेने से
यक़ीनन एहसास होगा तुम्हें भी
कि ये बातें बकवास नहीं
तब तलक शायद निशां बाकी न होंगे
सिली-सिली-सी तो है सम्तो-जिहत
पर मोड़कर रखी यादों की पोटली जब खुलेगी
तो मैं देख सकूंगा यक़ीनन
अपने हाथ से बनी तुम्हारी तस्वीरें जुदा-जुदा
तुम्हारे झुमके यहां अब भी कानों से लटके हैं
गालों से सटकर फहकती लटें वैसी ही हैं .... घनी -स्याह
सबकुछ संजो रखा है मैंने
वादे के मुताबिक , बिलकुल वैसा का वैसा
जवां और बेदाग
मै तुम्हारी पहुंच से काफी दूर उड़ चुका परिंदा
कोई भी निशां न ढूंढ़ पाओगी
मोड़ से मुड़ते ही
बन्द हो जाएंगे सारे दरवाजे तेरी ख़ातिर
पर मुझे ये अख्तियार है
कि मैं जब भी चाहूं
तुम्हें पलटकर निकाल सकूंगा ....... जिंदा