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फ़स्ले—गुल झुक के खड़ी हो जैसे / सुरेश चन्द्र शौक़
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फ़स्ले—गुल झुक के खड़ी हो जैसे
तेरे आने की घड़ी हो जैसे
तेरी मनमोहनी प्यारी तस्वीर
दिल के शीशे में जड़ी हो जैसे
दिल में बरपा है अजब —सी हलचल
तुझसे मिलने को घड़ी हो जैसे
इस तरह दोस्त चुराते हैं नज़र
कुछ ग़रज़ मुझको पड़ी हो जैसे
हाल कहते नहीं बनता ऐ ‘शौक़’
बात होंटों पे अड़ी हो जै्से
फ़स्ल—ए—गुल= बहार