फ़ित्ने-नौ यूँ उठाने लगी ज़िंदगी।
आँख उनसे लड़ाने लगी ज़िंदगी॥
ताज़ा दम होने को आए थे बज़्म में,
सूलियों पर चढ़ाने लगी ज़िंदगी॥
होश खाने लगी मौत भी देखिये,
फिर ये क्या गुनगुनाने लगी ज़िंदगी॥
उनकी आवाज़ फिर आइना बन गई,
गो ग़ज़ल इक सुनाने लगी ज़िंदगी॥
इम्तेहाँ हर नफ़स, हर क़दम पर अदू,
किस क़दर आज़माने लगी ज़िंदगी॥
जिसकी हसरत में दिल चाकदामन हुआ,
ख़्वाब फिर वह दिखाने लगी ज़िंदगी॥
क़ल्बे-मुज़्तर में नासूर रौशन हुए,
गोया यूँ झिलमिलाने लगी ज़िंदगी॥
जुस्तजू तेरी जब तक रही, ज़ीस्त थी,
अब तो 'साबिर' जलाने लगी ज़िंदगी॥