भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फ़िराके-यार में हालात अजब बना ली है / शहरयार
Kavita Kosh से
फ़िराके-यार में हालात अजब बना ली है
बदन वही है ये चिंगारियों से खाली है
रगों में खून की मिक़्दार अब बहुत कम है
हमारी आंख में जो है शफ़क़ की लाली है
यही तो वक़्त है जुल्मात से निकलने का
गदा है ये चांद है, ख़ुर्शीद भी सवाली है
ख़ला को तकना शबो-रोज़ का वज़ीफ़ा है
निगाह जब से तेरे बाम से हटा ली है
ग़मे-जहां में ग़मे-जां से बे-तअल्लुक हूँ
बड़े जतन से ये राहे-मफर निकाली है