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फागुनी सबेरे / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
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फागुनी सबेरे
वन-बाग महमहाये।
उँगली से पंखुड़ियाँ खोलती समीरन,
बिरवों से गुप-चुप यूँ बोलती समीरन;
क्यों बड़े सबेरे-
तुम ओस में नहाये।
पेड़ों पर कल के सोये स्वर फिर जागे,
कुछ डालों पर डोले कुछ उड़कर भागे;
कुछ लम्बे गेहूँ के-
साथ गहगहाये।
गभुआरे तन पर हर फूल है सलोना,
कंधे-से अरहर अब तौल रही सोना;
कह न सके कोई-
घर-गाँव गुनगुनाये।
छिमियारे सरसों के पीताम्बर डोले,
मेड़ों तक झुककर वे राह रोक बोले;
नगर छोड़कर कविवर-
आप कहाँ आये?