फागुन आ गया क्या? / प्रमोद कुमार तिवारी
‘उषा’ दबे पाँव आई
छिड़का बंद पलकों पर
उजाले का पानी।
चौखट पर ठुनक रही थी
‘सुबह’
दरवाज़ा खोलते ही
मिठाई पाई बच्ची-सी कूदती
घर में दौड़ गई।
अलसा के पसर गई ‘दोपहर’ आँगन में
अल्हड़ घरघुमनी धूल
पूरे गाँव का चक्कर लगाती रही
आँखों कानों में घुस कर
खेलती रही ‘धुलंडी’ बुज़ुर्गों तक से
ज़मीन पर नहीं थे उसके पाँव।
शोख पुरवा धोती खींच-खींच
कर रही ठिठोली,
लजाधुर धरती के बदन पर
उबटन लगा रही सरसों।
‘शाम’ आम के बगीचों में उतरी
गाँव में घुसते समय
लड़खड़ा रहे थे पाँव उसके,
मुँह से आ रही थी कच्चे बौर की बू।
कोयल के ‘कबीरे’ पर
‘कहरवा’ का ठेका लगा रहा ‘कठफोड़वा’,
तालों के जलतरंग पर
‘काफी’ बजा रही चाँदनी,
बूढ़े बरगद को सुना रहा महुआ
नशीले स्वरों में कोई आदिम प्रेम कहानी
हवा के थापों पर झूम रही माती ‘रात’
बिल्कुल सुध नहीं उसे
अपने आँचल की
पतों की आड़ ले
टिटकारी मार रहा मुआ ‘टिटिहा’
मेरा भी बदन टूट रहा
फागुन आ गया क्या?