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फागुन / बिंदु कुमारी
Kavita Kosh से
दुल्हा बनी फागुन एैलोॅ छै।
सबरोॅ मोॅन बेचैन बनैलेॅ छै।।
पराशोॅ के फूलोॅ-फूललोॅ छै
जेनासजनी सोलहोॅ शृंगार करी सजलोॅ छै
फागून मेॅ रात-रात भर होरीबा होरी गाबै छै
पिया बेदर्दी नैएैलै आबकी फागून मेॅ
अचरज बुझावै छै हमरा होरिबा के बात।
पिया फागुन मारै छै मनखी
हँसै डार-पात हांसै छै धरती।।
दुल्हा फागुन के तेॅ कहलोॅ न´ जाय।
ढोलक के ताल संग, झाल छै बजाय।।
अबीर लगाय केॅ होली मनाय छै।
माल पूवोॅ साथेॅ सौंप-सुपाड़ी खाय छै।।
दुल्हा बनी फागुन एैलोॅ छै।
सबरोॅ मोॅन बेचैन बनैलेॅ छै।।
पराशोॅ के फूल-फूललोॅ छै।
सोलहोॅ शृंगार करी सजनी एैलोॅ छै।।