फागुन / श्रीकांत वर्मा
फागुन भी नटुआ है, गायक है, मंदरी है।
अह। इसकी वंशी सुन
सुधियां बौराती हैं।
अपनी दुबली अंगुली से जब यह जादूगर
कहीं तमतमायी
दुपहर को छू देता है,
महुए के फूल कहीं चुपके चू जाते हैं
और किसी झुंझकुर से चिड़िया उड़ जाती है।
अह। इसकी वंशी सुन....।।
जब फगुनी हवा कहीं
मोरों के गुच्छ हिला
ताल तलैया नखा तीर पर टहलती है
ऋतु की सुधियां शायद
टेसू बनकर, वन वन
शाख पर सुलगती हैं।
दिन जब टूटे पीले पत्ते सा कांप कहीं
ओझल हो जाता है
संझा जब उमसायी, किसी
ताल-तीर बांस झुरमुट से झांक मुंह दिखाती है,
सरसों के खेतों में पीली
जब एक किरन
गिर गुम हो जाती है,
मेड़ों पर जब जल्दी-जल्दी
कोई छाया
आकुल दिख पड़ती है,
दूर किसी जंगल से मंदरी यह आता है
धिंग धिंग धा धा धिंग धा
धा धिंग धा धा धिंग धा
मांदल धमकाता है,
हौले हौले घर-आंगन में छा जाता है।
इस सूने जीवन में बांसुरी बजाता है।
अह! आह इसकी वंशी सुन...।