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फिर अँधेरों ने सर-ए-रात दिखाए सपने / नवीन जोशी

फिर अँधेरों ने सर-ए-रात दिखाए सपने।
फिर उजालों ने सर-ए-सुब्ह भुलाए सपने।

नींद नाकाम रही फिर से निगहबानी में,
किसी करवट पे फिर आँखों ने बहाए सपने।

ज़िंदगी जीने का सामान कहीं रखना था,
कुछ हटाना था ज़रूरी सो हटाए सपने।

शहर-ए-दीद अपना उजड़ने का हुआ जब ख़दशा,
तब किसी और की आँखों में बसाए सपने।

जब भी फ़ुर्सत हो तो हम देख लिया करते हैं,
कुछ ज़माने से तो कुछ ख़ुद से बचाए सपने।

ऐ हक़ीक़त कोई आवाज़ न कर थोड़ी देर,
मुश्किलों से बड़ी हमने हैं सुलाए सपने।

फिर से आहट हुई है दिल के किसी कोने में,
फिर उमीदों ने दरीचों पे सजाए सपने।