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फिर आज क्यों ? / पद्मजा शर्मा

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मैं अभी-अभी तो आई तुम्हारे पास
करने बहुत सारी बातें
आज ससुराल से आई है बेटी
आपने देखी उसकी आँखों की चमक
और हथेलियों पर मेहंदी का पक्का रंग
बेटा भी निकाल रहा है कद
उग रही है दाढ़ी-मूंछें
क्या तुम जानते हो तुम्हारे जुतों से
उसके पाँव कब के हो चुके हैं बाहर
उसकी हँसी और आवाज़ हू-ब-हू हैं तुम्हारे जैसी
जब तुम होते हो बाहर
सुनती रहती हूँ तुम्हें इस घर में
हमारे विवाह को होने आए हैं पच्चीस बरस
तुम्हीं ने तो छपवाए थे कार्ड
देखो कितना सादा हैं वे तुम्हारी तरह
पच्चीसवें बरस के पहले दिन
यह अचानक तुम कहाँ जा रहे हो
बिना बताए
वह भी इतनी रात गए
यह समय टहलने का नहीं
सोने का है श्री
फिर बाहर है ठंड भी
और हाँ, तुम तो आज तक
कभी नहीं गए अकेले
फिर आज क्यों चले जा रहे हो
वह भी सवेरा होने से पहले
इतनी भी क्या हड़बड़ी
रूको, मैं भी चलती हूँ तुम्हारे साथ
अरे, तुम तो निकल गए हो दूर
मत जाओ इतनी दूर कि सुन न सको मेरी आवाज़
देख न सको अपना भरा-पूरा परिवार
लौटने को न मिले रास्ता चाहकर भी
जल्दी लौट आओ श्री
मैं जानती हँू रास्तों की पहचान में
कितने कमजोर हो तुम
अकेलेपन और अँधेरों से मैं कितना डरती हूँ
क्या तुम से छिपा है ‘श्री’
लौट आओ कि भयभीत हूँ मैं
रात के इस पहर का अँधकार
कितना होता है डरावना
क्या तुम नहीं जानते श्री ?