भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फिर आज खड़े हैं सब के सब / सर्वत एम जमाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फिर आज खड़े हैं सब के सब
सरकार! अड़े हैं सब के सब

यह पेड़ बहुत कमजोर सही
आंधी से लड़े हैं सब के सब

दो चार कहो तो मान भी लूँ
कब पाँव पड़े हैं सब के सब

या तेल है सबके कानों में
या चिकने घड़े हैं सब के सब

बुनियाद मिले तो महलों की
गहरे ही गड़े हैं सब के सब