फिर आज बर्फ़ पर सूरज टहलने आया है
उदास धूप का मंज़र बदलने आया है
विषैला साँप है सूखा हुआ वो पात नहीं
जिसे तू पाँव से अपने मसलने आया है
तुम्हारे शहर का मौसम मुझे ज़हीन लगे
जो मेरे साथ किताबें बदलने आया है
हैं उसके हाथ में कुछ पक्षियों की आवाज़ें
कि जिनसे चुप्पियों का सर कुचलने आया है
वो दे न जाए पलायन की दीक्षा मुझको
कि जो भभूत मेरे तन पे मलने आया है.