फिर चुनौती / हरिवंशराय बच्चन
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
मैंने अपने पाँवों से पर्वत कुचल दिए,
कदमों से रौंदे कुश-काँटों के वन बीहड़,
दी तोड़ डगों से रेगिस्तानों कि पसली,
दी छोड़ पगों को छाप धरा की छाती पर;
सुस्ताता हूँ;
तन पर फूटी श्रम धारा का
सुख पाता हूँ.
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
मैंने सूरज कि आँखों में आँखे डाली,
मैंने शशि को मानस के अंदर लहराया,
मैंने नैनों से नाप निशाओं का अंबर
तारे-तारे को अश्रुकणों से नहलाया;
अलसाया हूँ;
पलकों में अद्भुत सपने
भर लाया हूँ.
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
रस-रूप जिधर से भी मैंने आते देखा
चुपचाप बिछाया अपनी बेबस चाहों को;
वामन के भी अरमान असीमित होते हैं,
रंभा की ओर बढ़ाया अपनी बाँहों को;
बतलाता हूँ
जीवन की रंग-उमंगों को.
शर्माता हूँ.
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
तम आसमान पर हावी होता जाता था,
मैंने उसको उषा-किरणों से ललकारा;
इसको तो खुद दिन का इतिहास बताएगा,
थी जीत हुई किसकी औ'कौन हटा-हारा;
मैं लाया हूँ
संघर्ष प्रणय के गीतों को!
मनभाया हूँ.
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
हर जीत ,जगत् की रीति चमक खो देती है,
हर गीत गूंज कर कानों में धीमा पड़ता,
हर आकर्षण घट जाता है, मिट जाता है,
हर प्रीति निकलती जीवन की साधारणता;
अकुलाता हूँ;
संसृति के क्रम को उलट कहाँ
मैं पाता हूँ.
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
पर्वत ने फिर अपना शीश उठाया है,
सूरज ने फिर से वसुंधरा को घूरा है,
रंभा ने कि ताका-झाँकी फिर नंदन से,
उजियाले का तम पर अधिकार अधूरा है;
पछताता हूँ;
अब नहीं भुजाओं में पहला
बल पाता हूँ.
अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--
कब सिंह समय की खाट बिछाकर सोता है,
कब गरुड़ बिताता है अपने दिन कन्दर में,
जड़ खंडहर भी आवाज जवाबी देता है,
वडवाग्नि जगा करती है बीच समुन्दर में;
मुस्काता हूँ
मैं अपनी सीमा,सबकी सीमा से परिचित,
पर मुझे चुनौती देते हो
तो आता हूँ.