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फिर भी / पूरन मुद्गल
Kavita Kosh से
पाती थी न कोई
न कोई संकेत था अभिसार का
बहुत पहले
सुनी-पढ़ी-सी
तूफ़ानी रात की
सूनी डगर थी
चल पड़ा मैं
मिलन की आस में
फिर भी ।
गीत मैं लिखता रहा
बिन छंद के / बिन ताल
उन्हें न कोई दे सकेगा स्वर
मुझे यह ज्ञात था
फिर भी ।
उम्र की लंबी सड़क पर
मुड़ चला वापिस
जानता था
नहीं मिलेंगे
घर-गली-कूचे / पुराने लोग / कोई दोस्त
यादों का पाथेय था
फिर भी ।