फिर लौट आऊँगा / जीवनानंद दास / जयश्री पुरवार
फिर लौट आऊँगा
धानसिड़ि नदी के किनारे इस बंगाल में
शायद मनुष्य – या फिर
शंखचील या शालिख के रूप में
या शायद भोर का कौआ बन
इस कार्तिक नवान्न के देश में
कोहरे के प्रवाह में बहकर
एकदिन आऊँगा इस कटहल की छाँव में
या फिर बनूँगा बत्तख़ किशोरी का, घुँघरू बँधे होंगे लाल पैरों में
पूरा दिन कट जाएगा
तैर - तैर कर
कलमी लता की महक से भरे पानी में
मैं फिर आऊँगा
बंगाल के मैदान, खेत और नदी के प्यार में
जलाँगी की लहरों से आर्द्र बंगाल के इस हरे भरे करुण तट पर ।
शायद तुम देखोगे अपनी आँखों से
सुदर्शन उड़ रहा है शाम की हवा में
शायद सुनोगे एक लक्ष्मीउलूक बोल रहा है
शाल्मली की डाल पर
शायद कोई शिशु
खील का धान फैला रहा है घर के आँगन की घास पर
या फिर कोई किशोर रूपसा के
मटमैले पानी में सफ़ेद फटेहाल पाल से नाव खे रहा है -
लाल बादलों को चीरते हुए अंधेरे में
आ रहा है वापस घोंसले में
देखोगे सफ़ेद बगुला :
मुझ ही को पाओगे तुम इन सब की भीड़ में ।
मूल बांग्ला से अनुवाद : जयश्री पुरवार