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फिर / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
Kavita Kosh से
रात है
अँधेरा है
कुआँ है
गहराई है
लोग हैं
नींद है
मज़बूरी है
ख़ामोशी है
केवल एक लाश झूल रही
चारों ओर
केवल एक अट्टहास गूँज रहा
चारों ओर
फिर आदमी मारा गया
फिर सेना कर रही है गश्त ।