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फुटकर-१ / अपूर्व शुक्ल

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आँखें हैं
एक गुनगुनी नदी बहती है नींद की
आँखों मे
सतरंगे रेशमी स्वप्न
के पालो वाली कत्थई नावें तैरती हैं
नदी के वक्ष पर
नाव मे रंगीन जगर-मगर
जादुई स्मृतियों की कंदीलें हैं
कंदील मे दिप-दिप चमकती
रोशनी से धुली, विस्मृत
आँखें हैं




देख्नना
एक शब्द को एकटक
देर तक घूर कर देखते रहना
इतना
कि उघड़ जाये सारे अर्थों के छिलके
वाष्पित हो जाये उद्‌गम, इतिहास
बचा रहे, अर्थ-काल से परे
सिर्फ़ शब्द
विवस्त्र
घुलता जाये कुछ
आँख की पुतलियों मे
जान लेना
थोड़ा अँधेरा और गाढ़ा कर जाता है
आत्मा के गहन अँधेरे मे




भागता रहा जीवन के अरण्य मे
थक कर गिरा
पराजित
सिर्फ़ चाबियाँ बची थी ठंडी
पसीजी मुट्ठियों मे
कुछ चाबियाँ प्रवाहित कर दीं
पश्चाताप की अग्निगंगा मे
रिश्तों की अलंघ्य दीवार मे चिन दी चंद चाबियाँ
कुछ चाबियाँ छीन कर हाथों से
नियति की लहरें बहुत दूर ले गयीं
हमेशा के लिये
विस्मृति के अंधे कुएँ मे फेंक दी
बची चाबियाँ
आँसू पोंछ लिये
मगर कहीं गुम हुई है कोई चाबी
जीवन की आपाधापी मे
किसी प्रतीक्षारत बंद द्वार के पीछे
अभी भी बची होगी
 दिये की एक टिमटिमाती लौ

अभी भी रात की थोड़ी सी उम्र बाकी है