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फूल और शूल / भूपराम शर्मा भूप

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इस जग में फूलों के आगे शूलों का कोई मोल नहीं।

देखो शूलों का स्नेह निकट जब फूलों के हम बढ़ते हैं
तो शूल बिचारे लाज त्याग सब प्रकार हमें पकड़ते हैं
पर हम रोता छोड़कर उन्हें फूलों को ले ही आते हैं
फूलों को हमसे घृणा अतः आते ही मुरझा जाते हैं
फिर भी तो हम उन फूलों का तजते हैं सौरभ पान नहीं।
इस जग में फूलों के आगे शूलों का कोई मान नहीं॥

विश्व को खिलाता कृषक, उदर में क्षुधा कंठ में प्यास कसे
पर बदले में धनपतियों का मिलता है कटु उपहास उसे
है श्वान ग्राम-प्रहरी परन्तु घर-घर दुत्कारे जाते हैं
है लाल चोंच इससे तोतों को पिंजड़े में बैठाते हैं

चिकना मुँह आदर पाता है चाहे हो चिकनी बान नहीं।
इस जग में फूलों के आगे शूलों का कोई मान नहीं॥

कितनी विचित्र है बात दानदाता जग में गर्वित मन से
अनुभव करता है अपने को उच्चातिउच्च भिक्षुक जन से

दाता तो भिक्षुक को केवल लाभान्वित करता है धन से
भिक्षुक दाता को देता है यश-गौरव निज निर्धनपन से

पर कौन सोचता है दाता का भिक्षुक-सा है दान नहीं।
इस जग में फूलों से आगे शूलों का कोई मान नहीं।

बिन प्रथम चुभीली नोंक सहे अलि क्या जानेंगे मृदुता को
यह सोच फूल हित शूलों ने तन में भर डाला कटुता को
सह लिया अयश पर फूलों को दे दी सहर्ष यश की थाती
ऊपर कठोर है पर कितनी कोमल है शूलों की छाती

दुख से सुख प्रिय लगता यद्यपि दुख बिन सुख की पहचान नहीं।
इस जग में फूलों के आगे शूलों का कोई मान नहीं।