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फूल के दिन, दिन कली के / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
फूल के दिन, दिन कली के,
पुरूरवा और उर्वशी के !
यह समय हो चिर-चिरन्तन,
साज न शृंगार उतरे,
‘पी कहाँ’ बोले पपीहा,
छप्परों पर काग उचरै !
गंध बौरों की अघा कर
पी के महुआ खूब झूमे,
नीम हो मधुकोष मधु से
इस तरह कचनार चूमे ।
साँस गरमाए शिशिर की,
रूप सुरभित केतकी के !
फुसफुसा कर क्या कहा कि
बन्धनों से मुक्त मन है,
मेघ सर पर उतर आया
पाँवों में पुरबा पवन है;
क्या रगण है, क्या मगण है
छन्द को माने न मन है,
प्राण में सिन्धु उफनती
धड़कनें; ज्यों, छुम छनन है!
काल कैसे रोक पाए,
जो इशारे हैं खुशी के ।’