फूल खिले बेला के / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'
सखि, फूल खिले बेला के, तुम मुसकाओ।
यह रात मखनियाँ, है चाँदनी रुपहली,
कजरी के कच्चे दूध-फेन-सी उजली,
है ठंडी-मीठी, -केले के शरबत-सी,
सुन लेगा कोई-चूड़ी मत खनकाओ!
फिर नहीं आज सी रात कभी मिलने की,
बगिया भी ऐसी कभी न फिर खिलने की,
मैं गूँथूँ कलियाँ काजल-से कुन्तल में-
तुम अनजाने अपना अँचरा खिसकाओ!
तुम मुझे देखतीं मिदुराए नयनों से,
चिहुँकाती हीरक-लौंग कान्त-किरणों से-
यों बैठो, छाँह सुहागिन इन कलिया की-
लोने कपोल पर फिसले-नहीं लजाओ!
मन आज हमारे सिरस-सुमन-से हल्के,
चन्दा पर ज्यों टुकड़े-बरसे-बादल के!
है धरा आज इन पाँवों को पथरीली-
लो उड़ें गगन में, काटें रात नशीली!
मैं बना करधनी तारों की पहनाऊँ-
तुम पौढ़ चाँद पर, शिथिल-वसन अलसाओ!
सखि, फूल खिले बेला के, तुम मुसकाओ!