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फूल झरे / बुद्धिनाथ मिश्र
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फूल झरे जोगिन के द्वार
हरी-हरी अँजुरी में
भर-भर के प्रीत नई
रात करे चाँद की गुहार ।
केसर-क्यारी से
बहकी हिरना साँवरी
ठुमुक-ठुमुक चले
कहीं रुके नहीं पाँव री
कहाँ तेरा हाट-बाट
कहाँ तेरा गाँव री ?
बादल की चुनरी पसार
काँप-काँप, अंग-छवि
बावरी अँजोरिया
ताल में निहारे बार-बार ।
पीपर की छाँह बसे
छुई-मुई प्रीत रे
अधरों से झाँक रहे
अधसँवरे गीत रे
अनजाने नाम लिखे
सीपियों के मीत रे
रेत भरे तीर को बुहार
रोम-रोम से अधीर
दर्द सब निचोड़ कौन
भेज रहा प्रिया को दुलार ।
बगुले-सी आस तिरे
मन में दिन-रैन रे
धनही पगडंडी पर
बिछुआ बेचैन रे
सुलझ रहे स्वप्न-बंध
उलझ रहे नैन रे
कौन परी तोड़ गयी हार!
एक-एक पंखुरी पर
अल्पना रचा गयी
बाँसुरी सुना गयी मल्हार ।