फेरियाँ / महेश सन्तोषी
कुछ लोग फेरियाँ लगाकर
दो वक़्त की रोटियाँ कमाते हैं,
पर कुछ लोग सिर्फ रोटियाँ मांगने के लिए
दिन भर फेरियाँ लगाते हैं!
रोटियाँ कमाने और खाने के बीच में बड़ी खाइयाँ हैं,
इसलिए लोगों ने हाथों के पुल बना लिए हैं,
कुछ की हथेलियाँ संकल्पों को बाँधे हैं
कुछ ने लाचार होकर हाथ फैला दिये है,
रोटियाँ मांगने की संस्कृति, उतनी ही पुरानी है
जितनी रोटियाँ कमाने की,
और सभ्यता ने इसे, सदियों से बारबर सहा है;
मैं घर के अन्दर कमाया हुआ खाना नहीं खा पाया क्योंकि
मेरे दरवाजे पर कुछ देर से एक भिखारी खड़ा है,
भिखारी हमें समाज से मिले थे, और हमने
इन्हें धर्म और संवेदना के नाम पर बेघर किया,
लेकिन ईश्वर ने दो हाथ भिखारियों को दिये थे
क्या हमने ईश्वर और उसके दिये हुए हाथ,
दोनों का ही एक साथ अपमान नहीं किया?
मैं भीख देना नहीं चाहता,
मैं भीख लेना भी नहीं चाहता,
पर मैं, अपने प्रश्न का उत्तर चाहता हूँ!