फेरू से बा बदले के राज / राकेश कुमार सिंह
रोज-रोज ई लोग
देसवा बनावे बदे
बदलेला चोला।
लउकेला इनका सोझा
चमचम चमचमात कुरसी।
अपना आ अपना पुतवा बदे
एगो से दोसर पारटी तूरे/ बदले
भा नाया पारटी बनावेला लोग।
दिन भर खटाई क बावजूद
देस क किसान-मजूर
रहता भूखे पेट परिवार समेत।
किसान मेहनत कइ-कइ अन्न उपजावता
जेके खा-खा आन मोटाता, लेक्चर पियावता
ओकर दिनों-दिन जरता खून, सूखता माँस।
मजूर करता मजूरी बाकी महँगी क मारल
नाँव भर के टका से, कइसे पोसे पेट?
पूरे परिवार क देंहि पतरा रहल बा।
ओहनी क ना चाहीं कुरसी भा ठहरे क कार
बाकिर जीए क चाहीं त दूनों जून रोटी क आधार?
आसरा में रोटी क, भेंटाता-
पुलिस क डंटा/गोली
नकिआइल सोचतारन सँ
बदले के एह सरकार के।
रोज-रोज निकलता जुलूस
चारू ओर गूँजता नारा
पहिला एलेक्सन क हारल पहलवान
गामा जस लउकता
दोसर चुनाव क तइयारी बा
फेरू से बा बदले के राज!