भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बँटवारे न कर / सोम ठाकुर
Kavita Kosh से
इन्द्रधनुषों को दिशायें बाँधने दे
खुश्बुओं के बीच बँटवारे न कर
खंडहरों की गूँज को सुन ले ज़रा, ये
ब्याज हैं डूबे हुए उस मूलधन की
खूब है हम, अजनबी - सी आँधियों में
व्यर्थ कस्तूरी गँवा दी प्राण मान की
दो गुलाबों के सदन हैं उन महकते
मधुवनों को आज अंगारे न कर
अनहदों के छोर छूकर भी ना जाने
रम गया तू किस घुटन वाली गली में
किस कदर छोटा किया आकाश तूने
डालकर खुद को अंधेरी खलबली में
सिद्धियाँ सब लौट जाएँगी यहाँ से
बीजमंत्रों को कभी नारे न कर
शुक्र कर तू सूर्य जैसी साधना का
बाँटते थे हम ज़माने को उजाले
लोक-मंगल के लिए वनवास भाया
सालते थे जब वसंतों को कसाले
ये दिए कितने जतन से जल सके हैं
रोशनी के द्वार अँधियारे न कर