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बंगलौर, जून 2010 / असद ज़ैदी

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दूसरे सत्र के बाद चायपान का अवकाश था
उस गूँज भरे सभागार से हम बाहर आए
ऊँचे दरख़्तों के दराज़ साये और हरे उजाले में

यह दुनिया जवान लोगों के लिए बनी है
सत्तावन के आसपास आकर मुँह छुपाना जायज़ है
ये ज़िन्दगी हराम है कि अन्दर से टूटे हुए लोग
आचरण के विचार के विधायक बने बैठे हों
और गम्भीरता का बेजा इस्तेमाल करते हों

ये बैठकें किसी समस्या को सुलझाने के लिए नहीं
और उलझाने के लिए आयोजित की जाती हैं, लड़की
आख़िर पाण्डित्य का धर्म है समस्यामूलक चिन्तन
नतीजे की बरामदगी बुरी ख़बर है हरेक के लिए
खिसको नहीं बैठकर सुनो

(जून 2010)