भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बंगलौर का जीवन / जया झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तरस गई हूँ मैं

पथरा गई आँखें।

देख चुकी रास्ता

कई बार जा के।


पूछा पड़ोसियों से

उसे देखा है कहीं।

पागल समझते हैं

मुझे लोग सभी।


बहुत मन्नतें मांगी

बहुत रोई, गिड़गिड़ाई।

कितने संदेशे भेजे पर

काम वाली आज फिर नहीं आई।

–-

जाओ बढ़ो,

बिना हॉर्न बजाए,

मुझे बाईं ओर से

एक इंच की भी दूरी दिए बिना

ओवरटेक करो

चलाओ अपनी गाड़ी

साँप की तरह रेंगते हुए

करो आगे उसे

इधर से, उधर से

जान आफ़त में डालते हुए।

क्या होगा अगर आगे मुझ से निकल भी गए तो?

अगले जाम में

या अगले सिगनल पर

हमें फिर मिलना है।

फिर एक ही जगह से

सब शुरु करना है।


लेकिन फिर भी

जाओ, बढ़ो।