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बंज़र चाँद / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
मेरी उम्र तीन साल तक
हॉस्टल की दीवारों से बातें करती रही
छतों को चूमते थे आंसू
सिसकी आज भी दफन है बगीचे में
अंधेरों ने कई बार दबोचा है मुझे
बहुत नुकीले थे शिक्षकों के शब्द
अक्सर जिस्म ज़ख्मी हुआ
अक्सर रूह घायल हुई
बचपन चुप्पी को सहलाता रहा
और चुप्पी मुझे समझाती...
एक उम्मीद थी बस
जो बदन में साँस लेती रही
बादलों से जब चाँद निकलता था
जैसे लिफाफा कोई ख़त उगलता था
आसमान से आती थी गावं की खुशबू
मेरी दोनों स्थिर आँखें
बड़े गौर से छूती थी
चाँद में उभरता हुआ 'माँ' का चेहरा
अब दिल्ली में रहता हूँ
चाँद तो दिख जाता है
मगर 'माँ' नहीं दिखती
लगता है- कम हो गई मेरी सोच की "frequency"
या फिर 'चाँद बंज़र' हो गया।